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          ( कबीरदास की सामाजिक चेतना )

भूमिका -  कबीरदास जी एक सच्चे समाज सुधारक थे। इन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक प्रकार की बुराइयों को दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए । कबीर दास जी ने जाति प्रथा , वर्ग भेद और छुआछूत आदि का विरोध किया है। कबीरदास जी निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे इसलिए इन्होंने मूर्ति पूजा , नमाज , व्रत , रोजा , हठयोग , बांग लगाना , तीर्थ यात्रा , तिलक और माला आदि का कठोर विरोध किया है।

         
कबीरदास की सामाजिक चेतना
कबीरदास की सामाजिक चेतना


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मूर्ति पूजा का विरोध - कबीरदास जी निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे इसलिए इनका मानना था कि ईश्वर पत्थर में निवास नहीं करता । वह तो संसार के कण-कण में समाया हुआ है। इनके अनुसार कोई भी व्यक्ति पत्थर की पूजा करके ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। इस पर कबीर दास जी कहते हैं -

पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार  
ताते तो चाकी भली पीस खाए संसार   ।।


तीर्थ यात्रा का विरोध - हिंदू धर्म में तीर्थ यात्रा के महत्व का विरोध करते हुए इन्होंने कहा है कि ईश्वर कभी भी तीर्थ यात्रा करने से प्राप्त नहीं होता । इन्होंने अपने शरीर को ही मंदिर मानकर ईश्वर को पहचानने का संदेश दिया है -

मन मथुरा दिल द्वारिका , काया काशी जाण ।
दसवां  द्वार  देहुरा  ,   ता मैं जोति पिछाण ।।


तिलक व माला का विरोध - कबीर दास जी ने विभिन्न प्रकार के तिलक व मालाओं को धारण कर ईश्वर की प्राप्ति का दावा करने वाले लोगों का कठोर विरोध किया है। इनके अनुसार आडंबरों से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता

   माला तो कर में फिरे ,  जीभ फिरे मुख मांहि   
मनवा तो दहुं दिश फिरे , यह तो सुमिरण नाहि ।।


जाति-पाति का विरोध - इन्होंने जाति-पाति और वर्ग भेद का विरोध किया है। कबीरदास  जी मानव धर्म की स्थापना को महत्व देते थे। इनके अनुसार मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा नहीं होता ईश्वर के लिए सभी समान है। कबीरदास जी कहते हैं कि जो भी ईश्वर की भक्ति करता है वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है -

      जाति - पाति पूछे नहिं कोई  
   हरि को भजे सो हरि का होई ।।


          ( कबीरदास की सामाजिक चेतना )

सिर मुंडाने और चोटी धारण करने का विरोध - कबीर दास जी ने भारतीय समाज में सिर मुंडाने व चोटी धारण करने संबंधी अवधारणाओं का विरोध किया है। इन्होंने कहा है कि इस प्रकार ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती  -

   मुंड मुंडाए हरि मिले , हर कोई लिए मुंडाए ।
बार-बार के मुंडतै , भेड़ न बेकुण्ड  जाए    ।।


बांग लगाना - कबीर दास जी ने मूर्ति पूजा के साथ-साथ मुसलमानों का मस्जिद पर चढ़कर चिल्लाना    ( बांग लगाना ) व्यर्थ कहा है। इसलिए वे  मुसलमानों से कहते हैं कि क्या तुम्हारा खुदा बहरा हो गया है जो तुम मस्जिद पर चढ़कर जोर-जोर से चिल्लाते       हो। वे कहते हैं कि

   कंकर  पत्थर जोरि के  ,  मस्जिद  लइ बनाय ।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे , क्या बहरा हुआ खुदाय ।।


जीव हत्या का विरोध - कबीर जी ने जीव हत्या कभी
 विरोध किया है वह दिन भर रोजा रखकर रात में 
गौ हत्या करके मांस भक्षण करने वाले मुसलमानों से पूछते हैं कि क्या तुम्हारा खुदा यह देखकर तुमसे पसंद हो सकता है -

   दिन भर रोजा रखत है , रात हनत है गाय ।
 यह तो खून वह बंदगी , कैसी खुशी खुदाय  ।।


हठयोग साधना का विरोध - कबीर दास जी के अनुसार अपने शरीर को विभिन्न प्रकार से दुखी करके ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता इसलिए इन्होंने हठयोग साधना का भी विरोध किया है। इनके अनुसार ईश्वर को सरलता से ही प्राप्त किया जा सकता है। कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर का मन ही मन नाम स्मरण करना चाहिए। ईश्वर को  केवल जाप करने से ही प्राप्त किया जा सकता है।

  कबीर निर्भय राम जपु , जब लगि दीवा बाति ।
तेल घटै बाति बुझै , तब सोवेगे दिन - राति ।।
  
         ( कबीरदास की सामाजिक चेतना )

निष्कर्ष - कबीर दास जी अपने समय के सच्चे समाज सुधारक  मानवतावादी कवि थे।  इन्होंने समाज में फैली विभिन्न प्रकार की बुराइयों का  कठोर विरोध किया है। समाज सुधारक के रूप में इनकी भाषा का प्रहार इतना तेज होता है कि श्रोता को हिला कर रख देता है यह अपनी भाषा के प्रहार  से ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने वाला केवल धूल झाड़ पर चल देने के सिवा कोई और मार्ग नहीं  पाता         


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