कबीरदास की भक्ति भावना )


 भूमिका - कबीरदास जी भक्तिकाल में निर्गुण काव्यधारा के सर्वप्रमुख कवि है। कबीर जी पहले भक्त हैं और फिर एक कवि। कबीरदास जी निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे इसलिए इन्होंने समाज में धर्म के आधार पर फैले अनेक प्रकार के आडंबरों का विरोध किया है। इनका काव्य भक्ति की भीतरी पवित्रता , एकाग्रता , प्रेममूलकता , समर्पणशीलता को दर्शाता है। कबीर की रचनाओं में शारीरिक और मानसिक भक्ति भावना का समायोग है। यही समायोग और उन्हें मानवतावादी चेतना के शिखर पर ले जाता है। इनके अनुसार एक ही ईश्वर विश्व के कण-कण में समाया हुआ है और इसी ईश्वर से सभी धर्मों का मार्ग निकलता है। यह मार्ग एक ओर हिंदू धर्म तो दूसरी ओर मुस्लिम धर्म की ओर जाता है और इसी तरह योग मार्ग , जहां से निर्गुण ईश्वर की भक्ति की धारा बहती है
  
             कबीरदास की भक्ति भावना )
निर्गुण ईश्वर की उपासना -  कबीरदास जी निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे इसलिए कबीरदास जी ने निर्गुण ईश्वर की उपासना पर बल दिया है। इन्होंने सर्वव्यापी , सर्वशक्तिमान , निर्गुण ईश्वर की उपासना की है। इनका ईश्वर अजन्मा , अनाम , अनंत और अगोचर है। निर्गुण ईश्वर की उपासना पर बल देते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि -


     निर्गुण राम जपहु रे भाई ।
  अविगत की गति लखी न जाए ।।
एकेश्वरवाद में विश्वास - कबीर दास जी ने बहुदेववाद व अवतारवाद का विरोध किया है और एकेश्वरवाद का संदेश दिया है। इनके अनुसार ब्रह्म ने ही ब्रह्मा , विष्णु , महेश को बनाया है। शिव भी ॐ नाम का जाप करते हैं। इनके अनुसार अवतार तो जन्म-मरण के बंधन से ग्रस्त है, किंतु ईश्वर कभी भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता वह शुन्य है। इनके अनुसार ईश्वर सभी देवताओं से ऊपर है।
     
    अक्षय पुरुष एक पेड़ है निरंजन बाकी डार ।
      त्रिदेव शाखा भए , पात भया संसार ।।

नाम-स्मरन पर बल -  कबीर दास जी निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे इसलिए इन्होंने निर्गुण ईश्वर की प्राप्ति के लिए नाम-स्मरन पर बल दिया है। इनके अनुसार नाम स्मरण से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है और हमें नाम स्मरण मन ही मन करना चाहिए। कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक तेरे इस शरीर रूपी दीपक में आयु रूपी तेल है तब तक तुम्हें निर्भय होकर राम( ईश्वर )- नाम का जाप करना चाहिए। जब आयु रूपी तेल घट जाएगा तब प्राण रूपी बाती भी हो जाएगी और फिर तू सदैव सोता ही रहेगा ।

    कबीर निर्भय राम जपु , जब लगि दीवा बाति 
   तेल घट बत्ती बुझै तब सोवोगे को दिन राति ।।

कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य दुख में ईश्वर को स्मरण करता है किंतु वह सुख में ईश्वर को भूल जाता है यदि वह सुख में भी ईश्वर को समरण करता रहे तो उसे दुख नहीं होगा-

     दुख में सुमिरन सब करें , सुख में करे न कोय ।
   जो सुख में सुमिरन करै , तो दुख काहे को होय ।।
                 कबीरदास की भक्ति भावना )   

भक्त्ति स्वरूप - कबीर दास जी की भक्ति भावना में कई रूप दिखाई देते हैं श्रवण , कीर्तन , स्मरण दास्य और वात्सल्य आदि रूपों में इनकी भक्त्ति दिखाई देती है।

गुणगान - कबीर जी निर्गुण ईश्वर की लगातार चर्चा करते हुए उनका गुणगान करते रहते हैं-

 निर्मल निर्मल राम गुण गावे  सो भक्त्ता मेरे मन भावे ।
 जे जन लेही राम को नाऊं ताको मैं बलिहारी जाऊं ।।

वात्सल्य रूप - कबीर जी के काव्य में वात्सल्य के रूप में भक्ति भावना भी दिखाई देती है कबीर जी स्वयं को बालक और ईश्वर को जननी के रूप में बताते हुए कहते हैं-

     अरे जननी मैं बालक तोरा ।
   काहे ना अवगुन बक्सहु मोरा

दास्य रूप - कबीर जी अपनी भक्ति भावना में सदैव तत्पर दिखाई देते हैं। इनकी भक्ति भक्त के रूप में ही नहीं , सेवक के रूप में भी दिखाई देती है -
 कबीर कुत्ता राम का मोती मेरा नाऊ ।
गले राम की जेवड़ी, जीत खींचे तीत जाऊं ।।

निष्कर्ष - इस प्रकार कबीर दास जी निर्गुण ईश्वर की उपासना पर बल देते हुए एकेश्वरवाद पर बल देते हैं। इनके अनुसार केवल नाम स्मरण से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। कबीर जी की भक्ति भावना में प्रेम को आकर्षक और प्रभावी रूप दिया गया है। कबीरदास जी का मानना है कि मानव प्रेम में भी ईश्वर की कृपा होती है। कण-कण में समाया हुआ ईश्वर ही मानवतावादी दृष्टिकोण की प्रेरणा का आधार है इनकी भक्ति भावना सार्वलौकिक सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। मैं एक और बहुत सरल और सहज है तो दूसरी ओर मौला के कारण सर्वाधिक कठिन और कष्टदायक भी है। इनकी भक्ति में बाह्याडंबर को कोई स्थान नहीं दिया गया है
कबीरदास जी एक ऐसे मंदिर के पुजारी हैं जो सभी के लिए खुला है।



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